चार हफ्ते दो दिन दस घंटे और दो पहर ना हम तुम्हरे सामने थे और ना तुम हमारे क़रीब दिल की जिस मेहफिल को तुम सजाया करते थे वहाँ एक सन्नाटा सा छा गया हम समझे, ज़िन्दगी के जिस हकीकत से तुम्हे संभाल के रखते थे वो ख़्वाबीदा ख़याल हमसे छूटता जा रहा हैं अब यह किसको पता था की जिस मुकाम को हम अपनी जीत और अपनी हार दोनों ही माने जा रहे है वो सब जीत-हार, ख़ुशी-ग़म, नज़दीकियां और दूरीयाँ दरअसल हमारे खुदी मे चिप्पी एक सुराही को भरे जा रही थी जिसको इंतज़ार था तुम्हरे एक नज़र का बैठी थी ये सुराही, बा-दस्तूर एक कोने मे कहीं जिसको देरी थी तुम्हारे करीब होने के एहसास का यहाँ हम मिले और वहाँ जिस सुराही को हम भरे जा रहे थे उसे तोड़ने के लिए, बस तुम्हरी महक ही काफी थी उस जुस्तजू को ज़रुरत थी तो बस तुम्हारे नवाज़िश की देखों हमारे चारो तरफ, तुम्हरे देखने मे आएगा, तुम्हरे होने और ना होने का नतीजा इतने शिद्दत से यूँ बिखरे पड़े है और अपने अंजाम मे भी मानो कुछ कह रहे है ये इनके टूटने की आवाज़ है या कुरान क...